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10 लाख स्वास्थ्य कर्मियों को 1000 रुपये की ‘कोविड सैलरी’: वादे ज्यादातर पूरे नहीं हुए

असम की रहने वालीं 33 साल की मीनारा बेगम चार बच्चों की मां हैं. उनका सबसे छोटा बेटा दो साल का है. वह रोते हुए कहती हैं कि अगर असम सरकार मेरी सैलरी आज नहीं देती है तो मेरे बच्चे भूखे मरेंगे. इसके लिए पहले मैंने कई धरने और आंदोलन किए हैं, लेकिन अब मैं सचमुच अपने पैसे के लिए सरकार से भीख मांग रही हूं.

मीनारा बेगम एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) हैं जो असम के पूर्वी जिले कामरूप मेट्रो में काम करती हैं. मीनारा भारत की महिला स्वास्थ्य वर्कर्स के नेशनल वॉलेंटियर कैडर की 10 लाख से अधिक सदस्यों में से एक है. ये वर्कर्स भारत के सामुदायिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बीच एक महत्वपूर्ण इंटरफेस के रूप में काम करती हैं.

मीनारा की मासिक “मानदेय” प्रति माह 3,000 रुपये है. लेकिन असम सरकार ने मार्च से लेकर मई तक के पैसे उन्हें नहीं दिए हैं क्योंकि आशा वर्कर्स को कर्मचारियों के बजाय स्वयंसेवकों के रूप में देखा जाता है. टीकाकरण और घर पर प्रसवपूर्व देखभाल जैसी गतिविधियों के लिए प्रोत्साहन के रूप में हर महीने दी जाने वाली कम-से-कम 2,500 रुपये की रकम भी लॉकडाउन के दौरान बंद कर दी गई है.

वहीं, साल 2017 में हुई गैस्ट्रिक-अल्सर सर्जरी के लिए अब जाकर उन्हें आशा किरण योजना के तहत स्वास्थ्य बीमा के तहत 3,000 रुपये मिले हैं. दूसरी ओर, मीनारा अपने घर के दो कमरों से किराए के रूप में 500 रुपए कमाती थी, लेकिन लॉकडाउन की वजह से आय का ये रास्ता भी बंद हो गया.

छह महीने पहले मीनारा के पति मुनाफ अली की नौकरी भी चली गई थी. वह ड्राइवर का काम करते थे. पति की नौकरी जाने के बाद से मीनारा अपने परिवार को अकेले ही कमाकर चला रही हैं. 

परिवार को दो वक्त का खाना खिलाने में दिक्कत होने पर मीनारा ने टीनेजर ( किशोरी)  बेटी का मोबाइल फोन भी 2,000 रुपये में बेच दिया. लेकिन यह पैसा भी बहुत लंबे समय तक नहीं चल पाया तो उन्होंने पीएचसी में अपनी सुपरवाइजर व सहायक नर्स मिडवाइफ (एएनएम) रूपन बेगम से 3,000 रुपये उधार लिए. मीनारा बताती हैं कि समय-समय पर रूपन बेगम ने उन्हें चावल-दाल के जरिए भी मदद की है.

मीनारा कहती हैं- जब भी मैं कोई मदद मांगती हूं तो मेरे आत्मसम्मान को काफी ठेस पहुंचती है. हमारी नौकरी में लोगों को पौष्टिक खाना खाने की सलाह देनी होती है. लेकिन हम अपने परिवार को किसी तरह दो वक्त का खाना देने में भी हम असमर्थ हैं. क्या यह विडंबना नहीं है? “

इस महीने स्थानीय आंगनवाड़ी केंद्र में मीनारा अपनी स्टील की अलमारी भी बेच रही हैं. इससे उन्हें खाने का इंतजाम करने के लिए 3,000 रुपए और मिलेंगे.

मीनारा कहती हैं- “पैसों के लिए किसी के सामने हाथ पसारने से अच्छा है कि मैं जो बेच सकती हूं उसे बेच दूं. अक्सर लोग आश्चर्य करते हैं कि जब हम प्रतिष्ठित राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के सरकारी कर्मचारी हैं तो हमें क्यों उधार लेना पड़ता है.”

पहले से ही आशा वर्कर्स को उनके काम के मुकाबले कम पैसे दिए जाते रहे हैं. ये पैसे भी देरी से मिलता है. अब कोविड के लिए घोषित की गई प्रोत्साहन राशि भी नहीं दी गई है और महामारी के दौरान नियमित मिलने वाला पैसा भी नहीं मिल रहा.

अप्रैल 2020 में भारत सरकार ने आशाओं को कोविड से संबंधित काम के लिए, कोविड-19 इमरजेंसी रेस्पॉन्स और हेल्थ सिस्टम्स रेडिमेड पैकेज के तहत जनवरी से जून तक के लिए हर महीने 1000 रुपये देने की घोषणा की थी. राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया था कि टीकाकरण और प्रसवपूर्व देखभाल जैसे कार्य-आधारित प्रोत्साहन राशि के साथ ही 2,000 रुपये का नियमित मानदेय दिया जाए.

आशाओं की स्थिति को लेकर आर्टिकल 14 और बहनबॉक्स ने एक साथ मिलकर सर्वे किया है. बहनबॉक्स एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है जो जेंडर डेटा और इससे जुड़ी कहानियों पर काम करता है. इस सर्वे में अप्रैल से लेकर मई तक भारत के 16 राज्यों के 52 आशा वर्कर्स और आशा यूनियन की नेताओं से संपर्क किया गया. इनके जरिए आशाओं के काम करने की स्थिति और प्रोत्साहन राशि भुगतान को ट्रैक किया गया. हमने पाया कि अधिकांश राज्य सरकारें केंद्र सरकार के निर्देश का पालन नहीं कर रही थीं.

सर्वे शुरू होने पर हमने पाया कि 75% राज्यों ने कोविड प्रोत्साहन राशि का भुगतान नहीं किया है. वहीं 69% राज्यों में हर महीने सैलरी देने में देरी की गई. कुछ जगहों पर पांच महीने तक सैलरी नहीं मिली थी. ऐसे एक भी राज्य नहीं थे जो लॉकडाउन के दौरान निलंबित की गई टीकाकरण जैसी गतिविधियों के लिए नियमित प्रोत्साहन राशि का भुगतान कर रहे हों.

सर्वे के दौरान केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, त्रिपुरा और असम में इंटरव्यू आयोजित किए गए थे.

आशाओं को किनारा कर दिया गया 

यह भी पता चला कि आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, हरियाणा, पश्चिम बंगाल और सिक्किम को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में आशाओं को हर महीने निश्चित सैलरी नहीं मिलती है.

अक्टूबर 2018 में केंद्र सरकार ने आशाओं को आठ काम के सेट के लिए 1000 रुपये के मेहनताना को बढ़ाकर 2000 रुपये प्रति माह कर दिया था. आठ काम के इस सेट में हर महीने ग्राम स्वास्थ्य और पोषण दिवस का आयोजन कराना, ग्राम स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण समिति की बैठक कराना शामिल है. साथ ही इसमें हर छह महीने पर जन्म और मृत्यु का रिकॉर्ड रखना, मासिक बाल टीकाकरण सूची तैयार करना और नवविवाहित जोड़ों की सूची को अपडेट करना शामिल है.

वहीं, आशा वर्कर्स को 66 अन्य कामों के लिए प्रोत्साहन राशि दी जाती है. जैसा कि हमने पहले बताया था कि प्रत्येक ओआरएस पैकेट को बांटने के लिए उन्हें एक रुपए, प्रत्येक जन्म और प्रसवपूर्व देखभाल के लिए 300 रुपये दिए जाते हैं.

ये प्रोत्साहन राशि और अन्य मानदेय लगभग देरी से ही दिए जाते हैं. कभी-कभी कई राज्यों में पांच महीने तक की देरी होती है. महामारी के दिनों से पहले भी आशा वर्कर्स को अपनी सैलरी से घर चलाने में दिक्कत आती थी. ज्यादातर आशा वर्कर्स बहुत गरीब, दलित और आदिवासी परिवारों से आती हैं.

अब महामारी के दौरान सैलरी में देरी ने आशाओं को और अधिक आर्थिक संकट में धकेल दिया है.

कोविड के खिलाफ भारत की इस लड़ाई में फ्रंटलाइन पर खड़ी रहने वालीं आशा वर्कर्स के काम लगभग सभी राज्यों में दोगुने से भी अधिक हो गए हैं. जबकि उनकी आय कम हो गई है. वहीं मानदेय दिए जाने में देरी के बाद सरकार ने जब आशाओं को पैसे दिए भी तो कइयों को आधी रकम ही मिली. इससे आशाओं को बहुत ज्यादा नुकसान हुआ, क्योंकि लॉकडाउन के कारण उनके परिवार के अन्य सदस्यों की नौकरी खत्म हो गई थी. कई आशा वर्कर्स अपने परिवार में एकमात्र कमाने वाली सदस्य बची थीं.

वहीं, इस सीरीज के पहले भाग में हमने बताया था कि कैसे आशा वर्कर्स चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में महामारी से लड़ रही हैं और न्यूनतम सुरक्षा के साथ ट्रैवल हिस्ट्री और कोविड लक्षण वाले लोगों को ट्रैक कर रही हैं और उनके डेटा को जन स्वास्थ्य केंद्रों को भेज रही हैं. इतना ही नहीं टेस्ट की भी व्यवस्था कर रही हैं और लोगों को जागरुक करने की जिम्मेदारी भी आशा वर्कर्स पर हैं. इस दौरान उन्हें उच्च स्वास्थ्य अधिकारियों से पर्याप्त मदद भी नहीं मिलती है और लोगों के गुस्से का सामना भी करना पड़ता है.

हमें यह भी पता चला कि इस महामारी के दौरान विभिन्न राज्य सरकारों की नीति पहले से ही शोषित आशा वर्कर्स को और अधिक खतरे में डालने वाली रही है. 

घोषित कोविड प्रोत्साहन राशि में भी कटौती

सभी राज्यों की आशा वर्कर्स ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा घोषित 1,000 रुपये की प्रोत्साहन राशि उनके लिए अपमानजनक और उनके काम के प्रति असम्मान पैदा करने वाली है.

गुजरात के भावगढ़ जिले के सोनागढ़ की एक आशा चम्पाबेन राठवा गुस्से में कहती हैं- “सरकार हर महीने कर्मचारियों को 30 से 40 हजार रुपये देती है  जिसका काम पंखे के नीचे बैठकर हमारी रिपोर्ट को ऑनलाइन सिस्टम में फीड करना होता है. हम अपने बच्चों को छोड़कर बाहर निकलते हैं. यह नहीं जानते हैं कि क्या हम घर वापस आएंगे. हमें क्या मिलेगा? एक दिन के 33 रुपए. क्या आप इस पैसे के लिए अपनी जान जोखिम में डालेंगे?”

हरियाणा जैसे कुछ राज्यों की सरकार ने कहा है कि कोविड सेवाओं के लिए काम कर रहे डॉक्टरों, नर्सों, प्रयोगशाला तकनीशियनों और एम्बुलेंस ड्राइवरों सहित अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों के मूल वेतन को दोगुना किया जाएगा. लेकिन आशा वर्कर्स इस सूची में शामिल नहीं हो पाई हैं. 

सुनीता रानी कहती हैं- “जब हम कोविड पॉजिटिव व्यक्ति की पहचान करते हैं तो उसके बाद ही दूसरे स्वास्थ्यकर्मी का काम शुरू होता है. लेकिन सरकार सोचती है कि उनका काम अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि का हकदार है, हमारा नहीं.”

वहीं, केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत कोविड ड्यूटी के दौरान मरने वालीं आशा वर्कर्स के लिए 50 लाख रुपए की बीमा की घोषणा की है.

झारखंड के सरायकेला जिले की आशा कौशल्या कहती हैं- “आशाओं के जीवन का सरकार के लिए कोई महत्व नहीं है. यही वजह है कि हमें पर्याप्त सुरक्षा के बिना खतरनाक क्षेत्रों में भेजने के बाद हमारी जान की कीमत लगाई जा रही है.”

कई राज्यों में कोविड ड्यूटी पर रहने के दौरान आशा वर्कर्स की थकावट, तनाव, भूख और यहां तक कि सड़क दुर्घटना की वजह से मृत्यु हो गई है. सिर्फ आंध्र प्रदेश और बिहार में छह आशा वर्कर्स की मृत्यु हो चुकी है. वहीं कई राज्य सरकारों ने आशा यूनियन की ओर आवेदन भेजने के बावजूद बीमा राशि की घोषणा नहीं की है.

मई में ही बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने महाराष्ट्र सरकार और केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह आशा वर्कर्स को कोविड प्रोत्साहन के रूप में प्रतिदिन 200 रुपये अतिरिक्त दें. 14 मई को देश भर की आशाओं ने एक वर्चुअल विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था. इस दौरान उचित पीपीई (व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण), सभी आशा वर्कर्स के लिए अनिवार्य रूप से कोविड जांच और कोविड भत्ता के रूप में 25,000 रुपये देने की मांग की गई थी.

राज्य सरकारें महामारी के दौरान पैसे बचाने के तरीके खोज रही हैं. केंद्र ने जनवरी से जून तक 1,000 रुपये की प्रोत्साहन राशि देने का निर्देश दिया था, लेकिन महाराष्ट्र और केरल को छोड़कर कोई भी राज्य सरकार पैसा नहीं दे रही है. सिर्फ महाराष्ट्र सरकार ने अप्रैल से जून तक के लिए कोविड प्रोत्साहन राशि बढ़ाकर 2000 रुपये कर दी.

त्रिपुरा और पंजाब सहित चार राज्यों ने कोविड प्रोत्साहन राशि दिए जाने वाले महीनों की घोषणा ही नहीं की है. अन्य चार राज्यों ने कहा है कि वे अप्रैल से जून तक ही कोविड प्रोत्साहन देंगे. जबकि मार्च से ही कोविड की गतिविधियां शुरू हो गई थीं.

75% राज्यों ने 1,000 रुपये की कोविड प्रोत्साहन राशि का भुगतान नहीं किया है.

तेलंगाना ने आशाओं को मार्च महीने के लिए मात्र 750 रुपये दिए हैं, जबकि अप्रैल के लिए 1000 रुपये दिए गए. छत्तीसगढ़ की आशा वर्कर्स को राज्य में मितानिन भी कहा जाता है. इन्हें कहा गया है कि ये भत्ता पाने के लिए एक महीने में आशा वर्कर्स को 100 घरों का सर्वेक्षण पूरा करना होगा.

छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के कोडवागोधम गांव की आशा सुमन ठाकुर ने बताया- “मैं 30 बैगा आदिवासी परिवारों के गांव में रहती हूं. मैं प्रोत्साहन राशि के लिए दावा कर सकूं, इसलिए मुझे इन्हीं परिवारों को कवर करने के लिए तीन बार दौरा करना पड़ा. लेकिन अभी तक हमें पैसे नहीं मिले.”

असम सरकार ने कुछ जिलों में मार्च के लिए प्रोत्साहन राशि का भुगतान किया है, लेकिन आशाओं को बताया गया है कि भविष्य में पैसे तभी दिए जाएंगे जब पर्याप्त राशि उपलब्ध होगी.

इसी बीच हरियाणा सरकार ने कहा कि वह केवल 500 रुपये ही देगी. लेकिन आशा वर्कर्स की ओर से विरोध के बाद उन्हें ये फैसला रद्द करना पड़ा. 

कर्नाटक कैबिनेट ने आशाओं को एकमुश्त 3000 रुपए की अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि देने का निर्णय लिया है.

कर्नाटक आशा संघ की अध्यक्ष एस वरालक्ष्मी राज्य सरकार के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहती हैं- “यह स्वागत योग्य कदम है, लेकिन आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के साथ अन्याय है जो आशाओं के साथ मिलकर कर्नाटक में कोविड-19 निगरानी के लिए ग्राम-स्तरीय टास्क फोर्स का गठन करती हैं. उन्हें क्यों छोड़ दिया जाना चाहिए? ”

“हमारे 100 रुपये लेकर सरकार कितना पैसा बचाएगी?”

हैदराबाद के डोमालगुडा की 35 साल की टी यादम्मा आशा वर्कर हैं. उन्हें तेलंगाना सरकार से 7500 रुपये का मानदेय मिलता है. इतने कम पैसे से अपना घर चलाने में उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि पूरा परिवार इसी पर निर्भर है.किराए के 6,500 रुपए देने के बाद उन्हें सभी घरेलू खर्च के लिए सिर्फ 1,000 रुपये बचते हैं. अप्रैल के महीने में उन्हें सिर्फ 4,000 रुपये मिले क्योंकि संस्थागत प्रसव नहीं हुए.

उनके पति टी श्रीधर को अस्थमा की शिकायत है. वह ऑटोरिक्शा चलाते थे जिससे महीने में करीब 10,000 रुपये की कमाई हो जाती थी. लेकिन मार्च में महामारी की वजह से काम बंद हो गया. ऐसे में उनका परिवार अस्थमा की दवाइयों का खर्च उठाने में भी असमर्थ हो गया.

यादम्मा अपने 11 साल के बेटे अखिलेश्वर और 9 साल के बेटे हर्षित को निजी स्कूल में पढ़ाती थीं. उन्हें जनवरी से मई तक के लिए हर महीने 3,500 रुपये ट्यूशन फीस जमा करने को कहा गया. यादम्मा को फीस जमा करने के लिए 35,000 रुपए की आवश्यकता है, लेकिन वह इतने रुपये इकट्ठा करने में असमर्थ हैं. अब वह बच्चों को स्कूल से निकालने पर विचार कर रही हैं. इसकी वजह से उन्हें मानसिक तनाव का सामना करना पड़ रहा है.

वे हमसे पूछती हैं- “हमने महामारी के दौरान अपनी नियमित गतिविधियों को नहीं रोका. हमने अन्य रोगों के लिए सर्वेक्षण किया. गर्भवती महिलाओं से फोन पर बात की. टीकाकरण के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र जाने के लिए लोगों को प्रेरित किया. कैसे सरकार हमें उन कामों का पैसा नहीं देगी? ” 

पिछले तीन महीने की कोविड ड्यूटी के दौरान यादम्मा जैसी राज्यभर की आशा वर्कर्स की नियमित आय में 2,500 रुपए और महीने की आय में 4,000 रुपए की कम हो गई है.

केंद्र सरकार के निर्देश की अवहेलना करते हुए राज्य सरकारें निलंबित गतिविधियों के लिए अतिरिक्त काम आधारित प्रोत्साहन देने से इंकार कर रही है. मार्च और अप्रैल के बीच आशा वर्कर्स को मुख्य आठ काम के लिए केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित 2,000 रुपये के मानदेय का आश्वासन दिया गया है.

सरकारी अस्पतालों में मातृत्व सेवाओं के कम होने से आशाओं की आय को एक बड़ा नुकसान पहुंचा है. जननी सुरक्षा योजना (JSY) के तहत आशा कार्यकर्ताओं को महिलाओं के साथ सरकारी अस्पतालों में जाने के लिए 300 रुपए दिए जाते हैं. लॉकडाउन के दौरान महिलाओं ने निजी अस्पताल या फिर घर पर ही बच्चे को जन्म दिए. इसकी वजह से आशा वर्कर्स को मिलने वाली प्रोत्साहन राशि घट गई.

समान स्वास्थ्य नीतियों पर काम करने वाले जन स्वास्थ्य अभियान के राष्ट्रीय संयोजक सुलक्षणा नंदी ने बताया- “राज्यों को जनवरी और मार्च के बीच आशा वर्कर्स को दी गई प्रोत्साहन राशि का औसत निकालना चाहिए. उन्हें पहले से निर्धारित प्रोत्साहन राशि पर कटौती की बजाय महामारी के दौरान पूरी सैलरी मिलनी चाहिए.”

महामारी से पहले भी कई राज्यों में सरकार आशा वर्कर्स की प्रोत्साहन राशि में कटौती के तरीके खोजती रही है. जैसे गुजरात केवल गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) की महिलाओं के लिए ही आशा वर्कर्स को मातृत्व प्रोत्साहन राशि देता है.

त्रिपुरा की सरकार ने पिछले दो सालों में कई बार प्रोत्साहन राशि घटा दी. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की मासिक बैठक में भाग लेने के लिए आशा वर्कर्स 150 रुपये की हकदार होती हैं. लेकिन अब उन्हें 50 रुपये ही दिया जाता है और मातृत्व प्रोत्साहन राशि 300 रुपये से घटाकर 250 रुपये कर दी गई है.

त्रिपुरा की आशा नेहरा बेगम पूछती हैं- “हमारे 100 रुपये लेने से सरकार के पास कितना पैसा बचेगा?”

देरी से भुगतान और बढ़ता खर्च = कर्ज का चक्र

सर्वे में पाया गया कि 13 राज्यों में नियमित भुगतान में देरी हो रही है और कुछ में तो पांच महीने तक की देरी देखने को मिली. राज्यों के भीतर भी भुगतान को लेकर असमानताएं हैं. उदाहरण के लिए, दक्षिणी गुजरात के आदिवासी बहुल डांग, पंचमहल और तापी जिलों में पिछले पांच महीने से सैलरी नहीं दी गई है. इससे हाशिए पर खड़े आदिवासी समुदाय की आशा वर्कर्स बेहद बुरी स्थिति में पहुंच गई हैं.

सोनीपत जिले की आशा वर्कर सुनीता रानी ने बताया कि हरियाणा के कई जिलों में आशाओं की अक्टूबर 2019 से फरवरी 2020 तक की सैलरी बकाया थी. इसी महीने की शुरुआत में उन्हें भुगतान किया गया.

ज्यादातर राज्यों में आशाओं ने हमें बताया कि प्रोत्साहन राशि नियमित रूप से देरी से ही दी जाती हैं. कुछ आशाओं के पास तो इसकी गिनती भी नहीं है कि सरकार के पास उनकी कितनी राशि बकाया है.

मध्य प्रदेश में 5 सालों से टीबी रोगियों की सहायता और देखभाल के लिए आशा वर्कर्स को मिलने वाली प्रोत्साहन राशि अब तक बकाया है.

पंजाब के रोपड़ जिले की आशा कार्यकर्ता रंजीत कौर कहती हैं- “सच कहूं तो हमारे खाते में जितना भी पैसा आ जाता है उसे देखकर हमें राहत मिल जाती है. हम सभी प्रकार के फॉर्म भरते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि आखिरकार हमें किस चीज के लिए कितना पैसा दिया जाता है.”

लेकिन कोविड महामारी ने आशा वर्कर्स की जेब खर्च को बढ़ा दिया है.

गुजरात के भावनगर की आशा चम्पाबेन राठवा कहती हैं- “हम खुद को सैनिटाइज करने के लिए साबुन और सैनिटाइजर पर अधिक खर्च कर रहे हैं. सरकार ने हमें इसका पैसा नहीं दिया है. हम अपने सर्वेक्षण के दौरान गर्मी से बचने के लिए पानी, नींबू और चीनी खरीदते हैं. इससे हमारा खर्च बढ़ता है.”

महामारी के पहले भी आशा वर्कर्स को परिवहन पर अपना पैसा खर्च करना पड़ता था. महिलाओं को प्रसव के लिए जिला अस्पताल ले जाना हो या डाटा इकट्ठा करने के लिए स्टेशनरी खरीदना, उन्हें खुद से ही खर्च करना पड़ता है.

सुलक्षणा नंदी ने आर्टिकल 14 को बताया- “आशा वर्कर्स ने हमेशा से ईंधन, स्टेशनरी, परिवहन आदि के लिए अपनी जेब से खर्च किया है और भारत की स्वास्थ्य प्रणाली को सब्सिडी दी है. यह निश्चित रूप से सरकार का खर्च है.”

रणजीत कौर पूछती हैं- “ज्यादातर आशा वर्कर्स बहुत गरीब परिवारों से हैं. कुछ तो उत्पीड़ित घरों से आती हैं. दो वक्त का खाना खाने के लिए भी अब वे स्थानीय साहूकार से ऊंचे ब्याज दर पर उधार ले रही हैं. वे इसे कैसे चुकाएंगी? सरकारों को इस बारे में सोचने की जरूरत है.”

असम के कामरूप जिले की आशा मिनारा बेगम कहती हैं- “सरकारी नौकरियों में 30 से 40,000 रुपये कमाने वाले लोगों को भी महीने के अंत में उधार मांगना पड़ता है. हम 3,000 रुपए में कैसे गुजारा कर सकते हैं? उसे भी सरकार समय पर देने से इंकार करती है.”

आशा वर्कर्स की मौजूदगी भी गिनी जाए और उन्हें लाभ मिले

विभिन्न राज्यों की आशा वर्कर्स ने आर्टिकल 14 को बताया कि विशेष रूप से महामारी के दौरान वे अपनी काम की स्थितियों को लेकर सरकार से मिलने वाली सुविधाओं से असंतुष्ट हैं. कई आशाओं ने यह भी कहा कि वे बेहतर सैलरी के लिए अपनी नौकरी छोड़ने पर विचार कर रही हैं.

आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले की आशा पोचम्मा कहती हैं- “जब हम उचित वेतन और बेहतर काम की परिस्थितियों की मांग करते हैं तो स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी हमसे पूछते हैं कि यदि आप लोग संतुष्ट नहीं हैं तो चले जाइए.”

मिनारा बेगम कहती हैं- “मैंने इस काम को करते हुए और सामुदायिक स्वास्थ्य प्रणाली के निर्माण में 16 साल लगाए हैं. समुदाय मुझ पर भरोसा करता है और मुझे सम्मान करता है. यह एकमात्र कारण है जिसकी वजह से मैं यह कर रही हूं.”

लोकसभा में सरकार के दावों के विपरीत इतने कम पैसे मिलने के बाद भी कुछ राज्यों को छोड़कर आशाओं को न तो राष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा योजना आयुष्मान भारत और न ही राज्य स्वास्थ्य बीमा योजनाओं में शामिल किया गया है. हालांकि, लोकसभा में सरकार बीमा के लिए उनके हकदार होने का ऐलान कर चुकी है.

आंध्र प्रदेश की आशा संघ की अध्यक्ष टी धनलक्ष्मी बताती हैं कि अप्रैल में विधवा पेंशन पाने वाली आशा वर्कर्स को दोहरी आय प्राप्त करने की वजह से उनकी सेवा समाप्त कर दी गई.

आने वाले महीने में जैसा कि अधिकांश प्रवासी मजदूर अपने घरों को लौट रहे हैं, संक्रमण का खतरा अधिक हो रहा है. ऐसे में आशाओं को सामान्य स्वास्थ्य गतिविधियों के साथ ही इन लोगों के 14 दिन अनिवार्य रूप से क्वारनटीन में रहने के दौरान भी काम करना होगा. इन लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति लगातार अपडेट करना होगा. 

अभी तक सरकार ने इस बात के कोई संकेत नहीं दिए हैं कि 1000 रुपए की कोविड प्रोत्साहन राशि को जून के आगे बढ़ाया जाएगा या नहीं. सुनीता रानी पूछती हैं- “सरकार इस देश में महिलाओं से ऐसे महत्वपूर्ण काम करा रही हैं जिसे न तो काम में गिना जाता है और न ही उसकी सैलरी दी जाती है. अगर यह आशा वर्कर्स को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक संकट में धकेलना है तो देश को रोग मुक्त बनाने का सपने कैसे साकार होगा?”

[इस रिपोर्ट को ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने सपोर्ट किया है. हालांकि ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस रिपोर्ट के कंटेंट पर किसी तरह से संपादकीय नियंत्रण नहीं किया है. ये लेख ‘आर्टिकल 14’ वेबसाइट के सहयोग से प्रकाशित किए गए हैं.]

(इस सर्वे को हिंदी में अंशु ललित ने ट्रांसलेट किया है.वह मल्टीमीडिया जर्नलिस्ट हैं और चित्रकूट कलेक्टिव से जुड़ी हुई हैं)

 

  • Bhanupriya Rao is the founder of Behanbox. She is a researcher and advocate on gender and just governance.

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