कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई : गुस्सा और तनाव में भारत के फ्रंटलाइन वर्कर्स
रात के 9 बज रहे हैं. दिनभर की भाग-दौड़ के बाद अब लक्ष्मी सिंह खाने बैठी ही थीं कि सरपंच ने उन्हें बुला लिया.कई दिनों से पैदल चलकर अभी कुछ प्रवासी मजदूर उनके गांव पहुंचे थे. लक्ष्मी बीच में ही खाना छोड़कर उन लोगों को क्वारंटीन करने के लिए जरूरी कामों में जुट गईं. यह घटना मध्यप्रदेश के भिंड जिले के रानियां गांव की है.
लक्ष्मी बताती हैं कि सबसे पहले समुदाय के जिस भी व्यक्ति में लक्षण होता है, वे लोग उसकी जांच करते हैं. इसके बाद ही डॉक्टरों का काम शुरू होता है. जब डॉक्टर गांव आते हैं तो वे रोबोट की तरह पूरा एक कपड़ा पहने होते हैं. जबकि, हमलोगों के पास एक मास्क तक नहीं होता है.
40 साल की लक्ष्मी की तरह ही दस लाख से अधिक आशा वर्कर्स हैं. मान्यता प्राप्त समाजिक स्वास्थ्य वर्कर्स को ‘आशा वर्कर्स’ कहा जाता है. वे भारत के सामुदायिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बीच एक महत्वपूर्ण इंटरफ़ेस के रूप में काम करती हैं. आशा के ऊपर कई सारी जवाबदेही है, जैसे कि- जन्मदर को रिकॉर्ड करना, पोषण के बारे में जानकारी प्रदान करना और सरकार को महत्वपूर्ण ऑन-ग्राउंड स्वास्थ्य डेटा उपलब्ध कराना.
केरल से त्रिपुरा तक 16 राज्यों में आशा वर्कर पर किए गए सर्वे में पाया गया कि इन दिनों वे 12 घंटे काम पर मौजूद रहती हैं. इसके बाद वाले समय में वह ऑन-कॉल होती हैं. कोविड-19 के खिलाफ भारत की इस लड़ाई के बोझ लिए वे अब खुद को अलग-थलग और असुरक्षित महसूस करने लगी हैं. साथ ही वे सब कुछ सहन भी कर रही हैं. बता दें कि इस कोविड-19 की वजह से भारत में 8 जून 2020 तक 7,135 लोगों की जान चली गई है और 256,611 लोग संक्रमित हुए हैं.
अगले 14 दिनों में लक्ष्मी दिन में दो बार गांव के क्वॉरेंटिन सेंटर जाकर प्रवासी मजदूरों से मिली और कोविड के लक्षणों की जांच करने के बाद जन स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) को रिपोर्ट दिया. इसके अलावा घर-घर जाकर सर्वे करने के लिए, वह एक दिन में 25 से 50 घरों में जाकर बुजुर्ग व्यक्ति, टीबी के मरीज, गर्भवती महिलाओं, हृदय और श्वसन संबंधी समस्याओं वाले लोगों से मिलकर कोविड के लक्षणों की जांच की और इसके बारे में पीएचसी को जानकारी दी. इन सबके दौरान वह अपने मुंह और नाक को रूमाल से ढककर रखती थी.
आशा वर्कर्स के ऊपर बहन बॉक्स ने सर्वे किया है. बहन बॉक्स एक डिजिटल प्लेटफॉर्म है जो जेंडर डेटा और उनकी कहानियों पर काम करता है. सर्वे के दौरान केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, त्रिपुरा और असम सहित 16 राज्यों के 52 आशा और आशा संघ के अध्यक्षों का इंटरव्यू किए गए.
सर्वे में पता चला कि राज्य सरकार बिना पर्याप्त सुरक्षा दिए आशा वर्कर्स से महत्वपूर्ण काम करा रही हैं. अपने परिवार और खुद के शारीरिक खतरे और मानसिक तनाव के साथ काम करने के बावजूद आशा वर्कर्स को पर्याप्त पैसे भी नहीं मिल रहे.
अपर्याप्त सुरक्षा की वजह से जान जोखिम में है.
गुजरात के भावनगर जिले के सोनागढ़ की एक आशा चम्पाबेन राठवा ने कहा- “हर दिन मैं इस चिंता के साथ रहती हूं कि कहीं मैंने अपने छोटे बच्चों को संक्रमित तो नहीं कर दिया है”. विभिन्न राज्यों में काम करने वालीं आशा वर्कर्स गंभीर चिंताओं से पीड़ित हैं. वे खुद के संक्रमित होने से लेकर संक्रमित परिवारों के बारे में काफी चिंतित रहती हैं. गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा में आशा वर्कर्स के कोविड पॉजिटिव होने की रिपोर्ट भी आई है. आशा वर्कर्स का कहना है कि अगर सही से जांच की जाए तो कई और पॉजिटिव पाए जाएंगे.
सरकारें आशाओं को न्यूनतम सुरक्षा (मास्क, दस्ताने और सैनिटाइजर) के बिना ही भेज रही हैं. शुरुआती 20 दिनों में, जब भारत व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) की भारी कमी का सामना कर रहा था तो आशा वर्कर्स ने अपने चेहरे को रूमाल और दुपट्टे से ढंक कर काम चलाया.
पंजाब के रोपड़ की एक आशा वर्कर रंजीत कौर ने कहा- “सरकार ने हमें अपने पैरों से लोगों के घरों के दरवाजे खोलने के लिए कहा है”.
यहां तक कि जब मास्क उपलब्ध हुए तो उन्हें उच्च स्तर के स्वास्थ्य कर्मचारियों ने ले लिया. पीपीई को उपलब्ध कराने के लिए कई राज्यों की आशा यूनियन ने अपनी सरकारों को कई आवेदन दिए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.
आंध्र प्रदेश में पूर्वी गोदावरी जिले के एक आशा वर्कर पोचम्मा ने कहा, “पीएचसी स्टाफ ने हमसे पूछा कि हमें मास्क की आवश्यकता क्यों है? “क्या आप कोविड पॉजिटिव रोगियों को छू रहे हैं?” एक समय के बाद हमें पूछना बंद करना पड़ा क्योंकि उन्होंने कहा कि हम अपने काम से दूर जाने का बहाना बना रहे हैं”.
सभी राज्यों की आशाओं ने हमें बताया कि हर उच्च स्तर के अधिकारियों का मानना है कि आशा किसी भी सुरक्षात्मक चीजों के योग्य नहीं है.
केंद्र सरकार ने 20 अप्रैल 2020 के निर्देश में राज्यों को सभी आशाओं को पीपीई किट उपलब्ध कराने के लिए कहा है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. हाल के हफ्तों में कुछ राज्यों में प्रत्येक आशा को महीने भर के लिए पांच डिस्पोजेबल मास्क और एक सैनिटाइजर मिला है. यह ज्यादा से ज्यादा 10 दिनों तक रह सकता है. कई आशाओं ने खुद के पैसे खर्च कर सैनिटाइजर खरीदा हैं. सभी राज्यों के आशाओं ने बताया कि जहां मीडिया मौजूद है, वहां सरकारों द्वारा वितरित किए जाने वाले कुछ मास्क शहरी क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों को दिए गए हैं.
मध्य प्रदेश की आशा लक्ष्मी ने कहा, “कॉरपोरेट और बड़े एनजीओ, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री केयर फंड को दान करने की बजाय हमें पीपीई किट क्यों नहीं दे सकती हैं. हर कोई हमारे जीवन की परवाह करने की जगह राजनीतिक आकाओं को खुश करना चाहता है”.
आशा अपने परिवारों को संक्रमित करने के डर से खुद की जांच कराने और अलग क्वारंटीन सुविधाओं की मांग कर रही हैं. हाल ही में हरियाणा के अंबाला जिले के दुखेरी की एक आशा ने क्वारंटीन सेंटर का एक वीडियो (नीचे देखें) रिकॉर्ड किया. क्वारंटीन सेंटर में उन्हें 21 पुरुषों के साथ रखा गया था. वहां पर सिर्फ एक शौचालय था. जबकि एक डॉक्टर को अंबाला छावनी क्षेत्र के एक सदर अस्पताल में क्वारंटीन किया गया था. आशाओं द्वारा एक दिन के विरोध और काम को स्थगित करने के बाद, हरियाणा सरकार ने उन्हें आश्वासन दिया है कि उन्हें भविष्य में समान उपचार के अवसर दिए जाएंगे.
महामारी के परिणाम के रूप में आशाओं को होने वाली चिंता-परेशानी और शारीरिक थकावट की वजह से मानसिक स्वास्थ्य संकट पैदा होने की आशंका है. इसके शुरुआती संकेत पहले से ही दिखाई दे रहे हैं. वे सामुदायिक संपर्क के कारण अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों से भेदभाव का सामना कर रही हैं, इससे उनको और अधिक मानसिक पीड़ा होती है.
असम में कामरूप जिले की आशा मिनारा बेगम ने कहा, “हमें ‘कोरोना वाला’ (कोरोना वाहक) कहा जाता है. हमारे पड़ोसी हमसे दूरी बनाकर रखते हैं, क्योंकि हम उचित सुरक्षात्मक किट के बिना समुदाय के सदस्यों के संपर्क में आते हैं. आगे वह कहती हैं, “हमें सुरक्षित रखने में सरकार की अक्षमता की वजह से हम अपने समुदाय में यह कीमत चुका रहे हैं”.
गुवाहाटी की एक अन्य आशा, टूटुमोनी लाहोन ने एक घटना को याद करके बताया कि एक आशा ने कोविड की ड्यूटी पर डॉक्टर द्वारा दिए गए पीपीई पहने हुए गर्व से एक तस्वीर साझा की थी. इस पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के ब्लॉक स्तर के एकाउंटेंट ने उन्हें एक मूल्यवान पीपीई बर्बाद करने के लिए फटकार लगाई. लाहोन कहती हैं,”एक आशा का जीवन मूल्यवान नहीं है, पीपीई कीट मूल्यवान है?”
कठिन होता जा रहा है काम
2005 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत एक स्वयंसेवक कैडर के रूप में आशाओं की भर्ती की गई थी, जो सामुदायिक स्वास्थ्य में सुधार के लिए समुदाय और भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बीच एक इंटरफ़ेस के रूप में काम करें. आशा अक्सर बहुत गरीब घरों, दलितों और आदिवासियों जैसे हाशिए पर खड़े समुदायों से आती हैं. आशा न केवल महत्वपूर्ण मातृक और बाल स्वास्थ्य संकेतकों में सुधार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, बल्कि स्वास्थ्य सिस्टम की महत्वपूर्ण डेटा को एकत्रित भी कर रही हैं, जिससे सिस्टम की कमजोरियों का भी पता चलता है.
आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, हरियाणा, पश्चिम बंगाल और सिक्किम को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में आशा को एक निश्चित मानदेय नहीं मिलता है. वे आठ मुख्य काम का एक सेट पूरा करने की शर्त पर केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित प्रति माह 2,000 रुपये के हकदार हैं. यह आठ मुख्य काम हैं – ग्राम स्वास्थ्य और पोषण दिवस का आयोजन, हर महीने ग्राम स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण समिति को बुलाना, हर छह महीने में घरेलू डेटा को अपडेट करना, जन्म और मृत्यु के रिकॉर्ड को तैयार करना. हर महीने बाल टीकाकरण सूची तैयार करना और नवविवाहित जोड़ों की सूचियों को अपडेट करना.
इसके अलावा अन्य कामों के लिए उन्हें प्रोत्साहन (इंसेंटिव) मिलता हैं, जैसे कि प्रत्येक ओरल रिहाइड्रेशन सॉल्यूशन (ओआरएस) पैकेट के वितरण के लिए एक रुपए और प्रत्येक संस्थागत जन्म और प्रसवपूर्व देखभाल के लिए 300 रुपये.
समय के साथ ही सरकारों ने बिना किसी अतिरिक्त भुगतान के कई अन्य काम को आशा पर डालना शुरू कर दिया. इनमें से कुछ काम तो स्वास्थ्य सेवा के बाहर के थे. जैसे कि चुनाव सर्वेक्षण और नागरिक कर्तव्यों का संचालन इत्यादि. संसदीय समिति ऑन एम्पावरमेंट ऑफ वुमेन “आशा की कार्यशील स्थिति” (2009-10) के अनुसार, वे दिन में 2-3 घंटे काम करने वाली थीं, लेकिन बीते सालों में आशाओं के काम के घंटे एक दिन में आठ घंटे से अधिक हो गए. महामारी के दौरान सरकारों ने बिना वेतन के काम की इस नीति को बढ़ाया है.
आशा वर्कर्स को अब लोगों को एहतियाती उपायों के बारे में शिक्षित करने का काम दिया गया है. वे कोविड महामारी से निपटने में स्वास्थ्य प्रणाली को सहायता कर रही हैं. वे कोविड लक्षणों के लिए अपने समुदाय में घरों की स्क्रीनिंग करती हैं. अपने संपर्क के जरिए जानकारी जुटाती हैं और इसे रिपोर्ट करती हैं.
इतना ही नहीं, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने आशा वर्कर्स को कोविड-19 से इतर भी कुछ सौंप दिया है. उन्हें दवाइयां वितरित करने, बुजुर्गों के लिए घर का दौरा करने, डायलिसिस पर निर्भर रहने वाले लोगों की देखभाल सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी दे दी गई है.
ये सभी काम उनको दिए गए अपेक्षित 66 काम, जैसे कि प्रसवपूर्व और घर पर आधारित प्रसवोत्तर देखभाल, टीकाकरण, परिवार नियोजन सेवाएं, किशोर स्वास्थ्य देखभाल और संक्रामक और गैर संक्रामिक रोगों के लिए नियमित जांच से ऊपर कर दिए गए हैं. बता दें कि एक आशा वर्कर रोजाना 25 से लेकर 150 घरों में जाती हैं.
कमजोर हेल्थकेयर सिस्टम, बोझ से दबी आशा
मार्च में जब कोविड-19 महामारी फैली तो सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था की तैयारी अधूरी थी. इसकी वजह से आशा वर्कर्स के ऊपर बोझ बढ़ गया. आशा वर्कर्स को ही सुनिश्चित करना था कि कम्युनिटी सुरक्षित रहे और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर क्षमता से अधिक भीड़ ना पहुंचे. इसके बाद से आशा वर्कर्स दिन-रात कोविड-19 की ड्यूटी कर रही हैं. साथ-साथ उन्हें अपने घर में सफाई, खाने बनाने सहित अन्य काम भी करने होते हैं.
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की आशा वर्कर्स ने हमें बताया कि वे मार्च की शुरुआत से ही क्वारनटीन में रहने वाले लोगों की मॉनिटरिंग कर रही हैं. कई बार एक दिन में 4-4 बार उन्हें मॉनिटर करने जाना होता है. विदेशों से घर आने वाले लोग, प्रवासी मजदूर, ट्रक ड्राइवर और अन्य लोगों की निगरानी की जिम्मेदारी उन्हें दी गई है. लॉकडाउन के दौरान ट्रांसपोर्ट सुविधा नहीं होने पर उन्हें कई बार 46 डिग्री की तपती गर्मी में पैदल ही चलना पड़ा. खासकर शहरी इलाकों में उन्हें अधिक दिक्कत हुई जहां 5 किलोमीटर तक वे पैदल चलने को मजबूर थीं.
कर्नाटक और केरल में आशा, आंगनवाड़ी वर्कर्स, पंचायत स्टाफ को मिलाकर गांव स्तर पर टास्क फोर्स तैयार किया गया और उन्हें मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी दी गई. लेकिन ज्यादातर राज्यों में काम का अधिकांश बोझ आशा के ऊपर ही रहा. एएनएम (Auxiliary Nurse Midwives) की ओर से उन्हें हर दिन नई सूचना और डेटा इकट्ठा करने को कहा जाता था. उप स्वास्थ्य केंद्रों में आशा और पीएचएस स्टाफ की मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी एएनएम पर होती है.
हरियाणा में आशा वर्कर्स सर्वे का 11वां राउंड पूरा कर रही हैं. इस दौरान उन्हें प्रेग्नेंट महिलाओं की कोविड-19 जांच के लिए डेटा इकट्ठा करना है जिसे सरकार ने अनिवार्य बना दिया है.
असम के डिब्रूगढ़ की आशा वर्कर नोनी ने कहा- “हमें इस काम के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं दी गई. हमें सबकुछ टेलिविजन या फिर सोशल मीडिया से सीखना पड़ा. आशा वर्कर्स को न सिर्फ खुद से ट्रेनिंग करनी पड़ी, बल्कि गांवों में सही सूचना के अभाव में पैदा हुईं अफवाहें भी उन्हें ही दूर करनी पड़ी.
समाज में कई सालों की मेहनत से मातृक और बाल स्वास्थ्य सेवा को तैयार किया गया. आशा वर्कर्स इस बात से नाखुश हैं कि कोविड-19 की वजह से उन पर काम का बोझ बढ़ने से उनका मूल काम छूट रहा है.
हरियाणा में आशा वर्कर्स यूनियन की अध्यक्ष और सोनीपत में रहने वालीं सुनिता रानी कहती हैं- “आजकल सिर्फ कोरोना को लेकर ही काम हो रहा है. आज हम नए जन्मे बच्चों को देखने भी नहीं जा पा रहे हैं क्योंकि डर है कि उन्हें संक्रमण न फैल जाए. मेरी चिंता है कि इतने सालों की कड़ी मेहनत के बाद भी हम वापस पुरानी जगह पर पहुंच सकते हैं, अगर हमने मातृक और बाल स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया.”
काम के दौरान वर्कर्स पर हमले और दुर्व्यवहार की घटनाएं
हरियाणा के बुतना कुंडू गांव की रहने वालीं 17 साल की सुमन के ऊपर उनके ही घर में हमला हुआ. एक पुरुष ने उन पर स्टील के पाइप से हमला किया. ये घटना इसलिए हुई क्योंकि सुमन की मां उषा ने बाहर से गांव में आने वाले एक शख्स के घर के बाहर क्वारनटीन का स्टिकर चिपका दिया था.
तीन बच्चों की मां और विधवा उषा दो दिनों के दौरान घायल सुमन को इलाज के लिए तीन अस्पतालों में लेकर गईं. लेकिन उन्हें पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआई) के तीन अस्पताल गोहना, खानपुर और रोहतक में इलाज से मना कर दिया गया. उन्हें अपने खर्च पर प्राइवेट एंबुलेंस करना पड़ा.
हरियाणा आशा वर्कर्स यूनिवन की ओर से अपील और सोशल मीडिया पर कई पोस्ट लिखे जाने के बाद ही सुमन को किसी तरह का इलाज मिल सका.
उषा ने फर्स्टपोस्ट से कहा- “अपने देश के लोगों की सेवा करने के बाद भी हमें यही मिलता है. न के बराबर पैसा, न कोई सुरक्षा और घायल बेटी. मां के रूप में मैं असफल रही. स्वास्थ्य मंत्रालय ने कुछ नहीं किया.” कई राज्यों में आशा वर्कर्स और उनके परिवार पर शारीरिक हमले और मौखिक दुर्व्यवहार की घटनाएं हुई हैं. वुमेन इन ग्लोबल हेल्थ की ओर से आयोजित वेबिनार में हरियाणा आशा वर्कर्स यूनियन की महासचिव सुरेखा ने कहा- “हरियाणा की दलित समाज की आशा वर्कर्स पर खासकर दबंगों की ओर से हमले किए जाते हैं ताकि वे अपनी जाति के प्रभुत्व को एक बार और दिखा सकें.”
कर्नाटक के बेंगलुरू, गुलबर्गा, बागलकोट, चिकाबल्लापुर और बेलगौम जिले में भी काम के दौरान कोविड-19 की ड्यूटी कर रहीं आशा वर्कर्स पर लोगों ने हमले किए. कर्नाटक आशा यूनियन की अध्यक्षा एस वरालक्ष्मी ने कहा- हमने जानकारी जुटाई है कि आशा और आंगनवाड़ी वर्कर्स पर हमले की कम से कम 50 घटनाएं सामने आई हैं. कर्नाटक में हर दिन ऐसी घटना बढ़ रही है. जरूरत है कि सरकार उनकी सुरक्षा के लिए आवश्यक जमीनी कदम उठाए.
महामारी से पहले के वक्त में आशा वर्कर्स हमेशा महिलाओं के बीच जाकर ही काम करती थीं. लेकिन अब उन्हें पुरुषों को सामान्य निर्देशों को समझाना भी मुश्किल हो रहा है जैसे कि सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर जानकारी देना.
सुनीता कहती हैं- “पुरुष हमारे साथ काफी रूखा व्यवहार करते हैं. गांव के मंदिर के पास जमा होने वालीं महिलाओं को अगर हम निर्देश देते हैं तो वे हमारी बात सुनती हैं. लेकिन गांव के चौपाल में जमा होने वाले पुरुष ऐसा व्यवहार करते हैं कि हमें उन्हें भगाने के लिए पुलिस बुलानी पड़ती है.
भारत सरकार ने 24 अप्रैल को एक अध्यादेश के जरिए महामारी कानून 1897 में संशोधन किया और स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोगों पर हमला करने वालों को सजा देने की घोषणा की गई.
क्यों खुद को अदृश्य मानती हैं आशा वर्कर्स
हरियाणा की आशा वर्कर सुनिता रानी पूछती हैं- “हर दिन हम सोशल मीडिया पर सुनते हैं कि कोरोना योद्धा का करें सम्मान. ये कोरोना योद्धा कौन हैं? सिर्फ डॉक्टर और पुलिस? क्या हम कोरोना योद्धा नहीं हैं? क्यों हम सरकार के लिए अदृश्य हैं?”
महामारी से पहले भी आशा वर्कर्स को अपने काम के बदले सम्मान और स्वीकृति पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता था.
आंध्र प्रदेश की पोचम्मा कहती हैं- “उच्च अधिकारियों की नजर में हम कीड़े हैं. क्योंकि हम गरीब परिवारों से आते हैं और 10वीं तक ही पढ़े हैं. कई बार आशा वर्कर्स को रिकॉर्ड रखने में दिक्कत होती है, ऐसे में अधिकारी हम पर चिल्लाते हैं और हमें अयोग्य करार देते हैं. सिर्फ इसलिए कि कई बार हम कुछ चीजें लिख नहीं पाते. क्या इससे हमारा काम कम महत्वूर्ण हो जाता है?”
कई सालों से आशा वर्कर्स मांग करती रही हैं कि उन्हें स्थाई स्वास्थ्य सेवा कर्मचारी का दर्जा, 18 हजार प्रति महीने सैलरी, सामाजिक सुरक्षा, मातृत्व लाभ दिए जाएं. साथ ही उनके काम और घंटे भी तय हों. आशा वर्कर्स का कहना है कि जब उन्हें उचित अधिकार और लाभ के साथ स्वास्थ्य सेवा का अभिन्न अंग समझा जाएगा तभी उनका शोषण खत्म होगा.
सात महीने के लंबे विरोध के बाद हरियाणा में 2018 में आशा वर्कर्स को 4 हजार रुपये प्रति महीने की फिक्स्ड सैलरी मिलनी शुरू हुई. आंध्र प्रदेश में आशा वर्कर्स के 10 सालों के संघर्ष के बाद वर्तमान मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी ने 10 हजार रुपये प्रति महीने की फिक्स्ड सैलरी का ऐलान किया. लेकिन इसके साथ ही राज्य में आशा वर्कर्स के सामने नई समस्या आ खड़ी हुई. पोचम्मा कहती हैं- “10 हजार रुपये सैलरी दिए जाने के बाद हमारा उत्पीड़न बढ़ गया. अब पीएचसी स्टाफ हमसे पूछते हैं कि हम क्या काम करते हैं जिसकी वजह से हमें सैलरी मिलती है? लेकिन अगर हम अपना काम बंद कर दें तो स्वास्थ्य सेवा का पूरा सिस्टम ढह जाएगा.”
विभिन्न राज्यों की आशा वर्कर्स इस बात से दुखी हैं कि महामारी के दौरान किसी ने भी उनके काम के महत्व का उल्लेख नहीं किया है. जिले के स्वास्थ्य अधिकारी, स्वास्थ्य मंत्री या मुख्यमंत्री, किसी ने भी उनके काम को पहचान नहीं दिया है. पीपीएफ के लिए राज्य सरकारों को सात बार मांग भेजा गया है, लेकिन किसी ने भी जवाब नहीं दिया है.
लक्ष्मी कहती हैं- “सम्मान तो भूल जाएं, जो भी रिपोर्ट हम जमा करते हैं उन पर हमारा हस्ताक्षर नहीं होता. उन्हें एएनएम की रिपोर्ट के तौर पर आगे भेजा जाता है. कल जब महामारी के काम का कोई मूल्यांकन किया जाएगा, हमारा काम और योगदान अदृश्य ही रहेगा.”
[इस रिपोर्ट को ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने सपोर्ट किया है. हालांकि ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस रिपोर्ट के कंटेंट पर किसी तरह से संपादकीय नियंत्रण नहीं किया है. ये लेख ‘आर्टिकल 14’ वेबसाइट के सहयोग से प्रकाशित किए गए हैं.]
(इस सर्वे को हिंदी में अंशु ललित ने ट्रांसलेट किया है.वह मल्टीमीडिया जर्नलिस्ट हैं और चित्रकूट कलेक्टिव से जुड़ी हुई हैं)
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